मुफिलिसी के मारे हैं, बीमार बहुत हैं
दिल में अभी दर्द-ओ-गुबार बहुत हैं
रंज-ओ-ग़म से ज़िन्दगी नासाज हो गयी
हर मोड़ पर शिकश्त, लाचार बहुत हैं
मिल्कियत के नाम पर अब जां ही बाकी है
क़त्ल करने को मगर सरकार बहुत हैं
मसीहा कोई आये तो शायद ज़िन्दगी बदले
सुना है इस जहां में मददगार बहुत हैं
ग़म-ए-ग़ुरबत को मिटाने आगे आओ 'वत्स'
साथ अगर साथी हों दो-चार बहुत हैं
ग़ैर वाजिब तो नहीं हो, अगर हम भी कुछ बोलें
अपने भी मयानों में तलवार बहुत हैं.
No comments:
Post a Comment